जनरल चौधरी जो बाद में भारत के थलसेना अध्यक्ष भी बने, उन्होंने इस ऐतिहासिक घटना का विवरण कुछ इस प्रकार किया था:
"मुझे बताया गया था कि इस अवसर पर महामहिम शाहिद आज़म यहाँ भी उपस्थित रहेंगे, लेकिन जब मैं अपनी जीप से यहाँ पहुँचा तो केवल जनरल इदरोस को देखा. इनकी वर्दी ढीली-ढाली थी और आँखों पर काला चश्मा था. वो पश्चाताप की मूर्ती बने हुए थे. मैं इनके क़रीब पहुँचा. हमने एक दूसरे को सैल्यूट किया. फिर मैंने कहा- मैं आपकी फ़ौज से हथियार डलवाने आया हूँ. इसके जवाब में जनरल अल-इदरोस ने धीमी आवाज़ में कहा: हम तैयार हैं."
इसके बाद जनरल चौधरी ने पूछा कि क्या आपको मालूम है कि हथियार बिना किसी शर्त पर डलवाए जाएंगे? तो जनरल इदरोस ने कहा, 'जी हाँ, मालूम है.'
बस यही सवाल-जवाब हुए और रस्म पूरी हो गई.
जनरल चौधरी ने लिखा, "मैंने अपना सिगरेट केस निकालकर जनरल इदरोस को सिगरेट पेश की. हम दोनों ने अपनी-अपनी सिगरेट सुलगाई और दोनों चुपचाप अलग हो गए."
और इस प्रकार आज से ठीक 70 साल पहले की उस गर्म दोपहरी की धूप में हैदराबाद पर मुसलमानों का 650 साल पुराना शासन भी धुएं में विलीन होकर रह गया.
इस दौरान जो कुछ घटा, उसने इस धुएं की सियाही में ख़ून की लाली भी मिला दी. इन कुछ दिनों में दसियों हज़ार आम नागरिक अपनी जान से हाथ धो बैठे.
बहुत से हिंदू, मुसलमान बलवाइयों और तमाम मुसलमान, हिंदू बलवाइयों के हाथों मारे गये. कुछ को भारतीय फ़ौज ने कथित तौर पर लाइन में खड़ा करके गोली मार दी.
दूसरी ओर निज़ाम की शाही सरकार समाप्त होने के बाद बहुसंख्यक हिंदू आबादी भी सक्रिय हो गई और इन लोगों ने बड़े पैमाने पर क़त्लेआम, बलात्कार, आगज़नी और लूटमार की.
जब ये ख़बरें उस समय भारत के प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू तक पहुँचीं तो उन्होंने संसद सदस्य पंडित सुंदर लाल की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग का गठन कर दिया.
मगर इस आयोग की रिपोर्ट को कभी भी जनता के सामने नहीं लाया गया. हालांकि साल 2013 में इस रिपोर्ट के कुछ अंश सामने आए, जिनसे ये पता चला कि इन दंगों में 27-40 हज़ार लोगों की मौत हुई थी.
रिपोर्ट में लिखा है कि 'हमारे पास ऐसी घटनाओं के पुख़्ता सबूत हैं कि भारतीय फ़ौज और स्थानीय पुलिस ने भी लूटमार में हिस्सा लिया. हमने अपनी जाँच में ये पाया कि बहुत सी जगहों पर भारतीय फ़ौज ने न केवल लोगों को उकसाया, बल्कि कुछ जगहों पर हिंदू जत्थों को मजबूर किया कि वे मुसलमानों की दुकानों और घरों को लूटें.'
इस रिपोर्ट में लिखा है कि भारतीय फ़ौज ने देहात के इलाक़ों में बहुत से मुसलमानों के हथियार ज़ब्त कर लिए जबकि हिंदुओं के पास उन्होंने हथियार रहने दिए. इस कारण से मुसलमानों की भारी क्षति हुई और बहुत से लोग मारे गए.
रिपोर्ट के अनुसार, विभिन्न जगहों पर भारतीय फ़ौज ने व्यवस्था अपने हाथों में ले ली थी. कुछ देहाती इलाक़ों में और क़स्बों में सेना ने व्यस्क मुसलमानों को घरों से बाहर निकालकर, उन्हें किसी झड़प का हिस्सा बनाकर गोली मार दी थी.
हालांकि रिपोर्ट में कुछ जगहों पर ये भी कहा गया है कि सेना ने कई जगहों पर मुसलमानों के जान और माल की रक्षा में अहम किरदार अदा किया.
मगर मुसलमानों की ओर से हैदराबाद के पतन में दो लाख से अधिक लोगों के हताहत होने का दावा किया था. लेकिन इस संबंध में कोई प्रमाण कभी प्रस्तुत नहीं किया गया.
ये रिपोर्ट क्यों प्रकाशित नहीं की गई? इसका कारण ये बताया जाता है कि इससे भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच नफ़रत बढ़ेगी.
हैदराबाद दक्कन कोई छोटी मोटी रियासत नहीं थी. साल 1941 की जनगणना के अनुसार, यहाँ की जनसंख्या एक करोड़ 60 लाख से अधिक थी. इसका क्षेत्रफल दो लाख 14 हज़ार वर्ग किलोमीटर था.
यानी जनसंख्या और क्षेत्रफल, दोनों की दृष्टि से ये ब्रिटेन, इटली और तुर्की से बड़ी जगह थी.
रियासत की आय उस समय के हिसाब से नौ करोड़ रुपये थी जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के कई देशों से भी अधिक थी.
हैदराबाद की अपनी मुद्रा थी. टेलीग्राफ़, डाक सेवा, रेलवे लाइनें, शिक्षा संस्थान और अस्पताल थे. यहाँ पर स्थित उसमानिया विश्वविद्यालय पूरे हिन्दुस्तान में एक मात्र विश्वविद्यालय था जहाँ देशी भाषा में शिक्षा दी जाती थी.
साल 1947 में बँटवारे के समय ब्रिटिश राज में स्थित छोटी बड़ी रियासतों को ये आज़ादी दी गई थी कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ अपना विलय कर लें.
रियासत के शासक मीर उसमान अली खाँ ने भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की बजाए ब्रिटिश राष्ट्र के अंदर एक स्वायत्त रियासत के रूप में रहने का निर्णय लिया.
लेकिन इसमें एक समस्या थी. हैदराबाद में मुसलमानों की जनसंख्या केवल 11 प्रतिशत थी, जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या 85 प्रतिशत थी.
ज़ाहिर तौर पर रियासत में हिन्दुओं की अधिकांश जनसंख्या भारत के साथ विलय के समर्थन में थी.
जब भारत में हैदराबाद के विलय की बातें होने लगीं तो रियासत के अधिकतर मुसलमानों में बेचैनी फैल गई.
कई धार्मिक संगठन सामने आए और उन्होंने लोगों को उकसाना शुरू कर दिया. रेज़ाकार के नाम से एक सशस्त्र संगठन उठ खड़ा हुआ जिसका लक्ष्य हर क़ीमत पर हैदराबाद को भारत में विलय से रोकना था.
कुछ सूचनाओं के अनुसार, उन्होंने रियासत के अंदर बसने वाले हिन्दुओं पर भी आक्रमण शुरू कर दिये.
इस परिप्रेक्ष्य में 'इत्तेहादुल मुसलेमीन' नामी संगठन के नेता क़ासिम रिज़वी के भाषण भड़काऊ होते हुए अपनी चरमसीमा पर पहुँच गये थे.
क़ासिम रिज़वी अपने भाषणों में ख़ुल्लम खुल्ला लाल क़िले पर परचम लहराने की बातें करते थे.
उन्होंने निज़ाम को यक़ीन दिला रखा था कि वो दिन दूर नहीं जब बंगाल की खाड़ी की लहरें आला हज़रत के चरण चूमेंगी. भारत की हुक़ूमत के लिये ये बहाना पर्याप्त था.
उन्होंने हैदराबाद पर सैन्य कार्रवाई की अपनी योजना तैयार कर ली जिसके अंतर्गत 12 और 13 सितंबर की रात को भारतीय फ़ौज ने पाँच मोर्चों से एक ही समय पर आक्रमण कर दिया.
निज़ाम के पास कोई नियमित और संगठित सेना नहीं थी. मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलेमीन के रज़ाकारों ने अपनी सी कोशिश ज़रूर की लेकिन बंदूक़ों से टैंकों का मुक़ाबला कब तक किया जाता?
18 सितंबर को हैदराबाद हुकूमत ने हथियार डाल दिए क्योंकि इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था.
इस जंगी कार्रवाई को 'पुलिस एक्शन' का नाम दिया जाता रहा है. लेकिन मुंबई के पत्रकार डी एफ़ कारका ने साल 1955 में लिखा था कि 'ये कैसी पुलिस कार्रवाई थी जिसमें एक लेफ़्टिनेंट जनरल, तीन मेजर जनरल और एक पूरा आर्म्ड डिविज़न लिप्त थे.'
"मुझे बताया गया था कि इस अवसर पर महामहिम शाहिद आज़म यहाँ भी उपस्थित रहेंगे, लेकिन जब मैं अपनी जीप से यहाँ पहुँचा तो केवल जनरल इदरोस को देखा. इनकी वर्दी ढीली-ढाली थी और आँखों पर काला चश्मा था. वो पश्चाताप की मूर्ती बने हुए थे. मैं इनके क़रीब पहुँचा. हमने एक दूसरे को सैल्यूट किया. फिर मैंने कहा- मैं आपकी फ़ौज से हथियार डलवाने आया हूँ. इसके जवाब में जनरल अल-इदरोस ने धीमी आवाज़ में कहा: हम तैयार हैं."
इसके बाद जनरल चौधरी ने पूछा कि क्या आपको मालूम है कि हथियार बिना किसी शर्त पर डलवाए जाएंगे? तो जनरल इदरोस ने कहा, 'जी हाँ, मालूम है.'
बस यही सवाल-जवाब हुए और रस्म पूरी हो गई.
जनरल चौधरी ने लिखा, "मैंने अपना सिगरेट केस निकालकर जनरल इदरोस को सिगरेट पेश की. हम दोनों ने अपनी-अपनी सिगरेट सुलगाई और दोनों चुपचाप अलग हो गए."
और इस प्रकार आज से ठीक 70 साल पहले की उस गर्म दोपहरी की धूप में हैदराबाद पर मुसलमानों का 650 साल पुराना शासन भी धुएं में विलीन होकर रह गया.
इस दौरान जो कुछ घटा, उसने इस धुएं की सियाही में ख़ून की लाली भी मिला दी. इन कुछ दिनों में दसियों हज़ार आम नागरिक अपनी जान से हाथ धो बैठे.
बहुत से हिंदू, मुसलमान बलवाइयों और तमाम मुसलमान, हिंदू बलवाइयों के हाथों मारे गये. कुछ को भारतीय फ़ौज ने कथित तौर पर लाइन में खड़ा करके गोली मार दी.
दूसरी ओर निज़ाम की शाही सरकार समाप्त होने के बाद बहुसंख्यक हिंदू आबादी भी सक्रिय हो गई और इन लोगों ने बड़े पैमाने पर क़त्लेआम, बलात्कार, आगज़नी और लूटमार की.
जब ये ख़बरें उस समय भारत के प्रधानमंत्री रहे जवाहर लाल नेहरू तक पहुँचीं तो उन्होंने संसद सदस्य पंडित सुंदर लाल की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग का गठन कर दिया.
मगर इस आयोग की रिपोर्ट को कभी भी जनता के सामने नहीं लाया गया. हालांकि साल 2013 में इस रिपोर्ट के कुछ अंश सामने आए, जिनसे ये पता चला कि इन दंगों में 27-40 हज़ार लोगों की मौत हुई थी.
रिपोर्ट में लिखा है कि 'हमारे पास ऐसी घटनाओं के पुख़्ता सबूत हैं कि भारतीय फ़ौज और स्थानीय पुलिस ने भी लूटमार में हिस्सा लिया. हमने अपनी जाँच में ये पाया कि बहुत सी जगहों पर भारतीय फ़ौज ने न केवल लोगों को उकसाया, बल्कि कुछ जगहों पर हिंदू जत्थों को मजबूर किया कि वे मुसलमानों की दुकानों और घरों को लूटें.'
इस रिपोर्ट में लिखा है कि भारतीय फ़ौज ने देहात के इलाक़ों में बहुत से मुसलमानों के हथियार ज़ब्त कर लिए जबकि हिंदुओं के पास उन्होंने हथियार रहने दिए. इस कारण से मुसलमानों की भारी क्षति हुई और बहुत से लोग मारे गए.
रिपोर्ट के अनुसार, विभिन्न जगहों पर भारतीय फ़ौज ने व्यवस्था अपने हाथों में ले ली थी. कुछ देहाती इलाक़ों में और क़स्बों में सेना ने व्यस्क मुसलमानों को घरों से बाहर निकालकर, उन्हें किसी झड़प का हिस्सा बनाकर गोली मार दी थी.
हालांकि रिपोर्ट में कुछ जगहों पर ये भी कहा गया है कि सेना ने कई जगहों पर मुसलमानों के जान और माल की रक्षा में अहम किरदार अदा किया.
मगर मुसलमानों की ओर से हैदराबाद के पतन में दो लाख से अधिक लोगों के हताहत होने का दावा किया था. लेकिन इस संबंध में कोई प्रमाण कभी प्रस्तुत नहीं किया गया.
ये रिपोर्ट क्यों प्रकाशित नहीं की गई? इसका कारण ये बताया जाता है कि इससे भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच नफ़रत बढ़ेगी.
हैदराबाद दक्कन कोई छोटी मोटी रियासत नहीं थी. साल 1941 की जनगणना के अनुसार, यहाँ की जनसंख्या एक करोड़ 60 लाख से अधिक थी. इसका क्षेत्रफल दो लाख 14 हज़ार वर्ग किलोमीटर था.
यानी जनसंख्या और क्षेत्रफल, दोनों की दृष्टि से ये ब्रिटेन, इटली और तुर्की से बड़ी जगह थी.
रियासत की आय उस समय के हिसाब से नौ करोड़ रुपये थी जो कि संयुक्त राष्ट्र संघ के कई देशों से भी अधिक थी.
हैदराबाद की अपनी मुद्रा थी. टेलीग्राफ़, डाक सेवा, रेलवे लाइनें, शिक्षा संस्थान और अस्पताल थे. यहाँ पर स्थित उसमानिया विश्वविद्यालय पूरे हिन्दुस्तान में एक मात्र विश्वविद्यालय था जहाँ देशी भाषा में शिक्षा दी जाती थी.
साल 1947 में बँटवारे के समय ब्रिटिश राज में स्थित छोटी बड़ी रियासतों को ये आज़ादी दी गई थी कि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ अपना विलय कर लें.
रियासत के शासक मीर उसमान अली खाँ ने भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की बजाए ब्रिटिश राष्ट्र के अंदर एक स्वायत्त रियासत के रूप में रहने का निर्णय लिया.
लेकिन इसमें एक समस्या थी. हैदराबाद में मुसलमानों की जनसंख्या केवल 11 प्रतिशत थी, जबकि हिन्दुओं की जनसंख्या 85 प्रतिशत थी.
ज़ाहिर तौर पर रियासत में हिन्दुओं की अधिकांश जनसंख्या भारत के साथ विलय के समर्थन में थी.
जब भारत में हैदराबाद के विलय की बातें होने लगीं तो रियासत के अधिकतर मुसलमानों में बेचैनी फैल गई.
कई धार्मिक संगठन सामने आए और उन्होंने लोगों को उकसाना शुरू कर दिया. रेज़ाकार के नाम से एक सशस्त्र संगठन उठ खड़ा हुआ जिसका लक्ष्य हर क़ीमत पर हैदराबाद को भारत में विलय से रोकना था.
कुछ सूचनाओं के अनुसार, उन्होंने रियासत के अंदर बसने वाले हिन्दुओं पर भी आक्रमण शुरू कर दिये.
इस परिप्रेक्ष्य में 'इत्तेहादुल मुसलेमीन' नामी संगठन के नेता क़ासिम रिज़वी के भाषण भड़काऊ होते हुए अपनी चरमसीमा पर पहुँच गये थे.
क़ासिम रिज़वी अपने भाषणों में ख़ुल्लम खुल्ला लाल क़िले पर परचम लहराने की बातें करते थे.
उन्होंने निज़ाम को यक़ीन दिला रखा था कि वो दिन दूर नहीं जब बंगाल की खाड़ी की लहरें आला हज़रत के चरण चूमेंगी. भारत की हुक़ूमत के लिये ये बहाना पर्याप्त था.
उन्होंने हैदराबाद पर सैन्य कार्रवाई की अपनी योजना तैयार कर ली जिसके अंतर्गत 12 और 13 सितंबर की रात को भारतीय फ़ौज ने पाँच मोर्चों से एक ही समय पर आक्रमण कर दिया.
निज़ाम के पास कोई नियमित और संगठित सेना नहीं थी. मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलेमीन के रज़ाकारों ने अपनी सी कोशिश ज़रूर की लेकिन बंदूक़ों से टैंकों का मुक़ाबला कब तक किया जाता?
18 सितंबर को हैदराबाद हुकूमत ने हथियार डाल दिए क्योंकि इसके अतिरिक्त उनके पास कोई दूसरा उपाय भी नहीं था.
इस जंगी कार्रवाई को 'पुलिस एक्शन' का नाम दिया जाता रहा है. लेकिन मुंबई के पत्रकार डी एफ़ कारका ने साल 1955 में लिखा था कि 'ये कैसी पुलिस कार्रवाई थी जिसमें एक लेफ़्टिनेंट जनरल, तीन मेजर जनरल और एक पूरा आर्म्ड डिविज़न लिप्त थे.'